मित्र …… तेरे वो पत्र !
मित्र……. तेरे वो पत्र !
दूरिया भूगोल की उतनी नहीं फिर भी मित्र,
मिलते नहीं वो तुम्हारे स्नेहसिक्त सुरभित पत्र,
कि जिनको बारम्बार पढ़ते-पढ़ते, चूमते हुए ही,
बीत जाते थे रात और दिन के कई कई सत्र,
भले ही तकनीक ने कर लिया है राज एकछत्र,
कि बदल दिये हैं दोस्ती व प्रेम के सब नक्षत्र,
अब वाट्सअप में से वो सुगन्ध नहीं आती,
पर कितने महकते थे तुम्हारे वो कागज के पत्र,
न जाने पत्रों में तुम कौनसा छिड़कते थे ईत्र ?
कि तुम मेरी रग़ रग़ में ही बस जाते थे मित्र,
अब कितनी ही करलूँ चैटिंग, काॅलिंग लेकिन,
कर नहीं पाता हूँ स्मृतियों के वो लम्हे एकत्र,
जब तुम डूबकर लिखते थे स्नेहिल शब्द पूरे,
मैं पढ़ लेता था वे अश्रुओं से अधमिटे अक्षर,
जानता हूँ वक्त लौटता नहीं है पीछे कभी मित्र,
पर कभी तो मिलेंगें मुझे तेरे प्यार भरे पत्र !
©राजेन्द्र जोशी ‘ॠषि’
सोजत नगर