मित्र का दुःख / MUSAFIR BAITHA
मित्र का दुःख/ छोटी कहानी
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कुछ वर्ष पहले मेरे एक मित्र के छोटे भाई की नृशंस हत्या हो गयी थी। हत्या किसी युवती से प्रेम–प्रसंग में मृतक के मित्रों-परिचितों ने ही की थी।
हत्या के कुछेक माह बाद परदेसी मित्र मेरे फेसबुक पर आये और किसी मुद्दे पर मुझसे उलझ गये। उन्होंने बात-बेबात बिहार सरकार का प्रसंग छेड़ा और लगे शासन-प्रशासन को गरियाने, जैसे कि शासन मेरे ही हाथों में हो! जैसे कि मित्र-अनुज की हत्या सरकार ने ही करवाई हो! यह भी कि मित्र इस गलतफहमी में भी थे कि मैं बिहार सरकार का नौकर हूँ जबकि मैं एक सरकारी स्वायत्त संस्था की सेवा में था जिसका नियोक्ता सरकार नहीं होती। दरअसल, मित्र की कुंठा यह थी कि फेसबुक पर मैं द्विजों के चोंचलों के बारे में लिख रहा था और प्रदेश सरकार मित्र की पसंद की नहीं थी, अगड़ों के स्पष्ट हित की नहीं थी और वे मुझे सरकार का नौकर समझ कर अपनी संचयित खीझ और पूर्वग्रहों का वमन कर रहे थे।
मित्र के साथ तब तल्खी से पेश आने का उपयुक्त अवसर न था। मित्र का अपने सहोदर की हत्या का जख्म ताजा था जिसे कुरेदना अमानवीयता होती, अपने शुष्क हृदय का प्रदर्शन होता।
पर इस दुखद अनहोनी से मेरा कोई सम्बन्ध न था, मैं तो घटना के दिनों खुद काफी विचलित रहा था। पर मेरे मित्र थे कि ‘चोट लगे पहाड़ और फोड़े घर की सिलौट’ अपने सांस्कारिक प्रशिक्षण एवं आसन्न दुःख में इस कहावत को जी गये थे।