मित्रता
मैले वस्त्र पहन सुदामा चले द्वारका नगड़ी,
कृष्ण कन्हैया दौड़े आए करने स्वागत उनकी ।
गले मिले , नयन भरे ,दोनों बड़े आनंदित हुए ,
धनवान और गरीब का भेद यहां ना देखने को मिले ।
संकोचवश सुदामा ने नहीं बताया था हाल अपना,
श्री कृष्ण तो अंतर्यामी पूरा कर दिए मित्र का सपना ।
लौटे सुदामा घर की ओर तो दिखी ना उसको झोपड़ी,
बदले में खड़ी थी अट्टालिका विशाल बड़ी,
चकित सुदामा मन ही मन किए मित्र को प्रणाम ,
क्या कोई मित्रता देखी है किसी ने श्री कृष्ण सुदामा समान।
मित्रता में ना कोई स्वार्थ निहित रहता है ,
यह तो अटूट बंधन है जो एक दूसरे को जोड़ कर रखता है।
—-उत्तीर्णा धर