मिट्टी के घर
चन्द सिक्के कमाने की होड़ में,
छोड़ कर गाँव शहर में आया मैं ।
कमाया था वो चन्द सिक्के भी मैने,
शहर का चकाचोंध भी भाया मुझको ।
रोज़ खाता था मैं वहाँ चिकेन बरियनी ही,
पाँच सितारे के एसी में बैठकर ।
शहरी जीवन कुछ ऐसा था यहाँ,
पड़ोसी का कुछ अता पता नहीं चलता था जहाँ ।
जब रहा कुछ दिन शहर में मैं
तब यहाँ की तंग गलियों में घुटन सी महसुस होने लगी ।
तब याद आया मिट्टी का घर मुझको अपना,
मिट्टी की सोंधी सी खुशबू जहाँ से आती थी ।
माँ बनाती थी मट्टी के चूल्हे पर मक्के की रोटी ,
गर्मी के मौसम में रखती थी मटके भर पानी ।
शाम को लगते थे पेड़ो के नीचे जमघट,
रात को सुनती थी दादी राजा रानी की कहानी ।
छुट गया था अब ये सब अनमोल खजाना हमारा,
जब से छोड़कर गाँव शहर में आया मैं ।
आज जब तन्हा हो घूमता हूँ शहर में अकेला,
तब याद आता है मिट्टी का घर अपना
भावना कुमारी