“मिटने को फिर एक बार”
कितनी बार शुरू करूं वहीं से,
दूर पहुंच जाती हूं कई बार,
फिर करनी ही पड़ती है,
एक नई शुरुआत हर बार,
जैसे मिली हूं पहली बार।
क्यूं बिखर जाऊं मैं,
सोचकर लौट जाती हूं,
तिनका तिनका जोड़ने,
फिर वहीं पहुंच जाती हूं,
जुड़ने को फिर एक बार।
सोचती हूं बस हर बार,
नहीं लौटूंगी इस बार,
दूर और दूर निकल जाऊंगी,
सबसे ओझल हो जाऊंगी,
नहीं मनाऊंगी इस बार।
मगर चली आती हूं बार बार,
अंतर्मन के अंतर्द्वद्व के साथ,
नई ऊर्जा व विश्वास के साथ,
फिर वही सृजन की चाह लिए,
मिटने को फिर एक बार।
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”…