माॅं लाख मनाए खैर मगर, बकरे को बचा न पाती है।
माॅं लाख मनाए खैर मगर, बकरे को बचा न पाती है।
रस्सी जल जाती पर उसकी, ऐंठन न कभी भी जाती है।।
पुष्पित और पल्लवित होते, संस्कार मानव जीवन में ,
निर्भयता हो या कायरता, नर के भीतर से आती है ।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी