माॅं तू जो होती !
माॅं तू जो होती !
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माॅं तू जो होती !
तो बात ही कुछ और होती !
तुझसे बातें भी होती !
ऑंसू भी मेरे तू पोंछ लेती !!
तू तो दर्द अपनी….
कभी ना छलकने देती !
बस, घर के सारे काम….
अपने सर पे उठा लेती !!
माॅं तू जो होती !
ममता की छाॅंव तेरी ,
मुझे मिलती ही रहती !
बस , तेरी उपस्थिति !
सारे ग़मों का हल होती !!
माॅं याद है मुझे वो दिन….
जब मुहल्ले के घरों में ,
अगलगी की घटनाऍं होती !
और तू श्री हनुमान चालीसा पढ़के….
अपने घर को बचा ही लेती !!
अच्छी तरह याद है मुझे वो दिन भी….
जब मैथ के हिसाब तुझसे ही सीखता !
मुझे जो कुछ समझ में नहीं आती….
पूछने हर जगह मैं तेरे पीछे ही दौड़ता !!
सबसे ज़्यादा तो छठ घाट पर….
मुझे तेरी कमी हर बार है खलती !
हम सब आगे-आगे डाला लेके जाते !
पीछे-पीछे फुलडाली लेके तू आ जाती !!
माॅं इतने बड़े घर-परिवार को सॅंवारकर !
तू खुद ही कहाॅं चली गई !
इन बातों को निरंतर सोच-सोचकर !
ये ऑंखें मेरी पथरा सी गई !!
किसी भी ख़ास-ख़ास अवसर पर….
तेरी कमी मुझे सदा ही है दिखती !
बस यही सोचता रहता हूॅं हर पल….
माॅं तू जो होती !??माॅं तू जो होती !!??
स्वरचित एवं मौलिक ।
© अजित कुमार कर्ण ।
किशनगंज ( बिहार )