माहिर होंगी
अनपढ़ आँखे मेरे दुःखी काव्य को ,पढ़ने में क्या माहिर होंगी।
जब भी पड़ेगा ध्यान काव्य पर ,निश्चित ही फिर काफ़िर होंगी।
तन की निग़ाहों का काफिराना ,अक्सर दिख जाता है सबको,
मन में मेरे आता है यही के ,मन की निगाहें ताहिर होंगी।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी
ताहिर – पवित्र