मासूम कोयला
एक मासूम से
लगने वाले
कोयले ने
कनक अंगार की
चादर ओढ़ ली
बिना मायनों वालों को
मायनों का
भ्रम देकर
उनकी प्यासी
लालची निगाहों को
प्रीत का
वहम देकर
गुनगुनाए गीत
कुछ छद्म
धोखों के
लबों पर सलोने
सनम लिखकर
महकाया उन्हें
सोंधी आँच वाली
खुशबू से
बहकाया उनके
जिस्मों को
दहक भरी चालाकी से
और हवस
बुझाई उनकी
आवारा चाहतों की
कुछ
वक्त की तपिश
कुछ बेईमान
शोलों की
जुंबिश के बाद
अपने
धनक रंगीन
लबादों में छिपी
खुदगर्ज़ी
और
अपने अंतर्मन में
बैठी हुई मक्कारी से
अपने चालबाज
गुमराह, हमसफर हमदम
और हमराज के रास्तों पर
बड़ी चालाकी से
सर्द फारिग होकर
उन्हें छोड़ दिया
जिंदा
लाश बनाकर
फिर
उन्हीं के चेहरों पर
ज़हर के लौ में
बुझी हुई
कुटिलता उड़ेल दी
उस क्षण
मासूम कोयले का
चेहरा निहारती रह गई!
हतप्रभ!
निष्प्राण सी!
ठंडी काली राख…..!
–कुंवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह
*यह मेरी स्वरचित रचना है
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