मासूमियत पर ग्रहण
एक लड़की की जिंदगानी हम सबके लिए कहानी बन गई,
छीन ली गई उससे मासूमियत पर वो अख़बार की शोभा बन गई,
क्या कसूर उस मासूम का किस किए की उसने सजा पाई,
अपनों के ही हाथों से वो जब अपनी आबरू न बचा पाई,
महज़ नौ साल की थी तब दुनिया दारी से अनजान थी,
जिन अपनों को समझती दुनिया वो उनके इरादों से अनजान थी,
बहाना देकर चॉकलेट का करीब वो उसके आ गया,
अपने नापाक इरादों को हकीकत करने में जुट गया,
बेपरवाह वो इन बातों से सही गलत का फर्क न पहचान पाई,
पर इस हादसे ने उसकी मासूमियत पर गंदगी की जंग लगाई,
सुनाया इस हादसे का वृतांत जब उसने अपने मां बाप को,
इसके बाद भी समाज के डर ने सब पर ख़ामोशी की मोहर लगाई,
जिसने किया गलत वो समाज में बेख़ौफ़ हो कर घूम रहा,
और जिसने सहा यह वो बचपन ख़ामोशी की चादर ओढ़े डर में जी रहा,
उड़ान भरने को जो तैयार हुए पंख वो अब किसी कोने में ख़ामोश हो गए,
सपने देखे जो नन्ही आंखो ने अब वो अंधेरी रात में दम तोड रहे,
कहानी यह नहीं एक लड़की की हज़ारों लड़कियां आज भी इससे गुजर रही,
इंसानियत और मासूमियत दोनों ही समाज के आगे सर झुका रही,
हारी थी अब तक मासूमियत अब इंसानियत भी हार गई,
जब रिश्तों की भीड़ में एक नन्ही कली खिलने से पहले ही टूट गई,
कसूर था उस मासूम का उसने अपनों में जहां और खुदा को देखा,
उसके इसी कसूर ने उससे उसके बचपन यौवन खुशी और सपनों का घर छीना।