माशूका पुरानी शराब सी
मेरी माशूका पुरानी शराब सी
जो बस चढती है उतरती नहीं
नशा है उसका बस अफीम सा
जो होश में आने देती ही नहीं
ख्वाब वो है महीन हसीन सा
टूट जाता है कुछ मिलता नहीं
सुर्ख अधर है उसके कांप रहे
कोई राहत भी मिल रही नहीं
मय आँखों से ही पिलाती है
पैमाने की होती जरूरत नहीं
तप रहा है ताप से तन बदन
शीतलता की कोई आस नहीं
प्रेमरोग है संगीन अपराध सा
जमानत की कोई आस नहीं
तन रहे हैं यौवन से अंग प्रत्यंग
शीथलता की कोई आस नहीं
प्रभात है यहाँ खूब चढ रही
पर शाम ढलने की आस नहीं
स्वभाव में है बहुत संजीदगी
क्रोधिता का कोई वास नहीं
सांसे हैं तीव्र चल रही गर्म सी
स्थिरता का है ठहराव नहीं
प्यार भाव होता रंगहीन सा
महसूस होता है दिखता नहीं
प्रेम होती है पावन आराधना
उपासना की होती सीमा नहीं
मेरी माशूका पुरानी शराब सी
जो बस चढती है उतरतीं नही
-सुखविंद्र सिंह मनसीरत