माशूका नहीं बना सकते, तो कम से कम कोठे पर तो मत बिठाओ
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
ऐ अमीरों सुनो
तुम ईमानदार हो
या बेईमान
मुझे नहीं मालूम,
लेकिन तुम लोग
मुझे छुआ मत करो
सोचा भी मत करो
मेरे बारे में,
तुम लोगों की वजह से
हम बड़े ख़ानदान वालों की
जीना हराम है,
आख़िर तुम ही बताओ हम लोगों का क्या गुनाह है,
जो बार-बार सताया व तड़पाया जाता है,
एक तो तुम लोग ले जाकर
बंद कर देते हो हमें संदूक में
छोड़ देते हो तड़पने को,
शुद्ध हवा तो दूर
साँस लेना भी, मुश्किल हो जाता है,
ख़ाक तुम्हारी, ऐसी अमीरी पर
मुझे शर्म आती है,
नहीं सँभाली जाती मैं तुमसे
तो दिल लगाते ही क्यों हो
और जब होते हैं कड़े पहरे तो
मुझे इनके उनके हाथों उछालते क्यों हो,
माशूका नहीं बना सकते,
तो कम से कम कोठे पर तो मत बिठाओ
मेरे प्यार की निश्चिंतता को
तुम यूँ ही हवाओं में मत उड़ाओ,
क्या भूल गए तुम, मेरी बड़ी व छोटी बहन के दर्द को,
जो अब चले हो, मुझे नीलाम करने,
सुनो एक बात कान खोलकर सुन लो,
अबकी बदनाम हुई तो
बड़ी दी व छोटी का बदला भी लूँगी
न चैन से बैठूँगी और ना चैन से रहने दूँगी
सोच लेना, समझ लेना, यह आख़िरी है
वर्ना जाकर सरकार से सच-सच कह दूँगी…