मानुष हूं मैं या हूं कोई दरिंदा
मानुष हूं मैं
या हूं कोई दरिंदा
हवस हैं मेरे भी अन्दर
हूं मैं बड़ा शर्मिन्दा
भीतर के दानव से लड़कर
बस रहता हूं मैं जिंदा
कामवासनाओं से दूर उड़कर
बन जाऊ मैं एक परिन्दा
आसमान की गहराई नापने का
न है मेरे पास कोई फंदा
मैं क्या करूँ मैं कहा जाऊ
न है कोई मेरी सुनता
जो सुनता वो बचता
हल न कोई निकलता
मैं रुकता मैं चलता
बार-बार मैं फ़िसलता
न डरता न मरता
हर बार खुद ही सभलता