माना मौसम अंगारों का
माना मौसम अंगारों का
माना मौसम अंगारों का
प्रखर -धनुष की टंकारों का
फिर भी अधरों की वसुधा पर
फसल हँसी की बोनी है ।
मौसम की मक्कारी आगे
झुकना तो मिट्टी होना है
खोना है आँखों का गहना
गालों पर आँसू ढोना है
माना दर्पण धूल सना है
आनन पर भी तिमिर घना है
फिर भी मन के दीवट पर
सौम्य दीपिका जोनी है ।
आतंकित होकर तूफ़ां से
नाविक नौका कब तोड़े है
भूले है कब पथ पुलिनों का
कब सागर गलियाँ छोड़े है
माना चोट बड़ी गहरी है
दर्द नदी आँगन ठहरी है
फिरभी धीर करों से अपने
नित जयमाल पिरोनी है ।
दशा दिनों की चंद्रकला- सी
सदा कहाँ थिर रहने वाली
अभी कटार सरीखी है जो
होगी कभी सुधा की प्याली
माना धुंध नहीं छँटती है
खंदक राह नहीं अँटती है
फिरभी काया की गाड़ी पर
साँस-गाँठ हँस ढोनी है ।
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अशोक दीप
जयपुर