माना तुम्हारे मुकाबिल नहीं मैं …
माना तुम्हारे मुक़ाबिल नहीं मैं।
पर इतनी भी नाक़ाबिल नहीं मैं।
खुद को समझूँ खुदा, मूढ़ और को,
हूँ लेकिन इतनी ज़ाहिल नहीं मैं।
काम जो भी मिला तन-मन से किया,
कपट औ झूठ में शामिल नहीं मैं।
समझती हूँ हर इक चाल तुम्हारी,
होश पूरा मुझे, ग़ाफिल नहीं मैं।
सिर्फ दिखावे की हों बातें जहाँ,
मजमे में ऐसे दाखिल नहीं मैं।
औरों को चोट दे मिलती है जो
कर सकूँ खुशी वो हासिल नहीं मैं।
मुझको निरंतर चलते ही जाना,
दरिया हूँ बहता, साहिल नहीं मैं।
-© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मनके मेरे मन के” से