मानसून
मानसून तुम कहाँ छिपे हो,
अपनी सूरत दिखलाओ।
ताप हरो थोड़ा धरती का,
अब रिमझिम जल बरसाओ ।
देख प्रचंड रूप सूरज का,
हर प्राणी ही घबराये ।
छिनी हँसी भी है फूलों की ,
पात पात ही मुरझाये ।
काले काले मेघों से अब,
दिनकर को भी मिलवाओ।
मानसून तुम कहाँ छिपे हो,
अपनी सूरत दिखलाओ।
माना कुछ कर्मों से हमने ,
तुम्हें चोट पहुँचाई है
मगर सज़ा उसकी भी अपनी,
धरती माँ ने पाई है ।
प्यासा कितना इसका कण कण,
बरसो प्यास बुझा जाओ ।
मानसून तुम कहाँ छिपे हो,
अपनी सूरत दिखलाओ।
पेड़ लगाकर गलती अपनी,
हम सब सुनो सुधारेंगे।
अपने ही हाथों से अपना,
पर्यावरण सँवारेंगे।
माफ करो अब सब नादानी,
हमें नहीं यूँ तरसाओ ।
मानसून तुम कहाँ छिपे हो,
अपनी सूरत दिखलाओ।
18-06-2019
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद