मानव
मानव
मनुष्य भी क्या जीव है,
सपने ही संजोता वो उम्र भर |
बालक,भाई,प्रियतम,पिता वो,
कभी दुश्मनी निभाता क्रूर बन ||
कभी प्रियतमा का प्रीतम,
कभी वैभवशाली जन मानस का |
फिर भी न नींद आती उसे,
रातों को सोचता ही रहता चकोर बन ||
कब,कहाँ,कैसे ? माला-माल होऊं,
यही फिदरत रही तेरी उम्र भर |
खूब पाया,खूब संजोया यहाँ,
अंत समय ठोकरे मिली दर-बदर ||
आज मरघट पर याद आया,
क्या खोया, क्या पाया उम्र भर |
जानता सब कुछ, फिर भी सपने संजोता,
दौड़ता दिनभर न थकता, भागता उम्रभर ||
‘सुमित’ सिर्फ माया का खेल ये दुनिया,
अंत याद आता सब,किया क्या है? उम्रभर ||
पं. कृष्ण कुमा शर्मा “सुमित”