मानव मन चंचल सा
*** मानव मन चंचल सा ***
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मानव मन चंचल नटखट सा,
सागर लहरों सा लहराता है,
फूल देखकर सुंदर गुलाब सा,
जुबान सा फिसल जाता है।
पुरुष प्रेम है होता उथला सा,
अंबुधि मौजों सा मस्ताना है,
मयखानों की मय नशीला सा,
नशीली नजरों का दीवाना है।
प्यार है उसका दल बदलू सा,
चंद मिनटों में बिक जाता है।
अस्थिर हवाओं का आलम सा,
रंगीन इत्रों पर बहक जाता है।
आदी है खुश्बुओं पर भँवरों सा,
स्पर्श की भाषा पहचानता है,
कच्ची कलियों का शिकारी सा,
क्षण भंगुर आनंद को जनता है।
संगमरमरी मूरतों का शिल्पी सा,
सुंदर सूरतों पर पल में मरता है।
कामुक भावों का है व्यापारी सा,
जीती जीवन की बाजी हरता है।
वो स्त्री के अंतर्मन को क्या जाने,
शक्लों को अकलों से जीतता है,
कोमल कमल से हृदयों पल में,
जहरीला सांप बनकर डसता है।
मनसीरत नारी का प्रेम स्थाई है,
मानव की बन रहती परछाई है,
मात्र महसूस करने जी सकती है,
औरत के स्नेह में घनी गहराई है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)