“मानव-धर्म”
मिटे भेद, असमानता,
यही हमारा कर्म।
सर्वहिते, आचार हो,
यही, हमारा थर्म।।
उर में हो सद्भावना,
जीवन का यह मर्म।
शान्त भाव हो वार्ता,
कभी, न होवें गर्म।।
ज्ञान और विज्ञान ही,
है विकास का मन्त्र।
कट्टरता पनपे नहीं,
ऐसा, हो कुछ तन्त्र।।
जात-पाँत खाईं बड़ी,
ऊँच-नीच सब व्यर्थ।
प्रेम शाश्वत सार है,
किँचत, हो न अनर्थ।।
न्याय व्यवस्था हो त्वरित,
अगणित इसमें गर्त।
क्षमादान के शील से,
खुलें, हृदय के पर्त।।
पीड़ित की सेवा प्रथम ,
रखेँ स्वयं को व्यस्त।
वँचित कोई ना रहे,
रहे, न कोई त्रस्त।।
त्याग और बलिदान ही,
है सबको अनुमन्य।
एकलव्य से हो गई,
गुरू-दक्षिणा धन्य।।
ज्ञान और विज्ञान ही
है विकास का मन्त्र।
कट्टरता पनपे नहीं,
ऐसा, हो कुछ तन्त्र।।
शबरी के सत्कार पर,
करें हमेशा गर्व।
हेल-मेल, सौहार्द्र हो,
मनें, इस तरह पर्व।।
यूरोप, भले अमेरिका,
मणिपुर हो या विदर्भ।
वासुधैव कुटुम्बकम्,
उचित, आज सन्दर्भ।।
पलेँ-बढ़ें सुविचार बस,
खाएं मूल अरु कन्द।
“आशा”-दीप जलेँ सदा,
होँ, पुलकित सब वृन्द..!
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