मानव तुम ना गुरूर करो ।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
असंख्य जीव धारी है रहते,
पेड़-पौधों हरियाली भी पलते,
नदिया पर्वत जंगल भी बसते,
पशु-पक्षी जीवन है जीते।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
क्षितिज जहांँ पर मिलते है,
भूमि और सागर विस्तृत है,
कण-कण में प्राणी रहते है,
जीवनचक्र धरा का उन सबसे है।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
हक और राज किया ना किसी ने,
दोहन जग का अन्धा-धुन्ध कर रहे,
निरीह प्राणी निर्भर है उस प्रभु पर,
कायनात का मालिक जो रब है।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
सदियों से नदिया यूँ बहती,
खग-विहग वैसे ही नीड़ सजाते,
पशु जग के सब विचरण है करते,
प्राकृतियों से कोई दूर नहीं है।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
हो तुम श्रेष्ठ और बलशलि,
अपितु बुद्धिमत्ता अच्छी है सबसे,
फिर भी प्रकृति से तुम जुदा नहीं हो,
मनमानी तेरी यूँ उचित नहीं है।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
जगतगुरु और जननी हूँ सबकी,
मेरी मिट्टी अंश है तेरा भी,
तेरा गुरूर अंततः मिट्टी में मिलेगा,
वसुन्धरा का सम्मान तो रख।
मानव तुम ना गुरूर करो,
ये वसुन्धरा केवल ना तेरा है।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदह हमीरपुर।