मानव जाति विनाश की ओर…..
सुविधाभोगी मानव सुविधाओं के,ज़ोश में होश गवाए जा रहा।
प्रकृति-संतुलन बिगाड़े मूर्ख देखो,अपने पाँव कुल्हाड़ी खा रहा।
पेड़ काटता अंधाधुंध नितप्रति,क़ारखाने से धुआँ फ़ैला रहा।
क़ार्बन-डाईआक्साइड पैदा कर,टेम्परेचर धरा पर बढ़ा रहा।
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भूकंप बाढ़ सूखा बीमारी ये,तोहफ़े प्रकृति-संतुलन ह्रास के।
दूर तक निशां न मिलेंगे यूँ भैया,जीवन की देखना तुम प्यास के।
टेम्परेचर बढ़ा तो ध्रुवों की बर्फ़,पिंघले दिन होंगे संत्रास के।
धरा जलमग्न हो जाएगी रे यूँ,बहेंगे दिन जीवन उल्लास के।
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विज्ञान ज्ञान के रथ पर चढ़कर तू,बारूद-बिस्तरा बिछा रहा है।
अस्त्र-शस्त्र विनाश के खिलौने सभी,जिनको देख तू इठला रहा है।
जो चीज़ बनी है प्रयोग होगी रे,इस पर क्यों घना इतरा रहा है।
विकास की ओर नहीं मानव सुन तू,विनाश की ओर ही जा रहा है।
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अब भी व़क्त है संभल जा ज़रा तू,पेड़ लगा पर्यावरण स्वच्छ कर।
ग़ंदगी न फ़ैला भू पर फ़र्ज़ समझ,तुच्छता छोड़ दे कर्म उच्च कर।
तेरे धरा नभ नदी नाले सारे,रक्षा करले न इनको तुच्छ कर।
जीवन स्वर्ग सम होगा धरा पर रे,सबसे प्रेमभरे कर्म अच्छ कर।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
प्रवक्ता हिंदी
राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय,
किरावड़ (भिवानी)
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मात्रा माप—20-18-20-18