मानव की मनमानी का
प्रकृति चिट्ठा खोल रही यहाँ,
है मानव की मनमानी का।
धूप की तपन, बढ़ती गर्मी,
असर है ये बेइमानी का।।
उमर कम , झड़ते सफेद बाल,
आधे गोरे लटकते गाल।
सर गंजा और निकली तोंद,
पूछो क्या हाल जवानी का।।
भर-भर थैला जहर आ रहा,
मानव नित-नित पका खा रहा।
दिमाग कम आँखों मे चश्मा,
है कसूर क्या नादानी का।।
दूध अनाज सब्जी और फल,
वहीं प्रदूषित धरती का जल।
उपज बढ़ाता घटता जीवन,
रसायनी कारस्तानी का।।
ताजी चीजें बासी खाएँ,
फ्रिज में उनकी उमर बढ़ाएँ।
है चार दिन की जिंदगी से,
दो दिन बचा मेहमानी का।।
चमक बढ़ा, रसायन ने जहाँ,
निचोड़ लिया धरती का अंग।
छिप गए प्रकृति के रंग सभी,
कहाँ शेष कुछ नूरानी का।।
अभी समय गया नहीं प्यारे,
जाग सको तो जागो तुम “जय”।
चलना सिखा नई पीढ़ी को,
कर्म तेरे खून-रवानी का।।
संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म.प्र.