मानव की चिढ
तुझे मिली हरियाली डाली,
मेरी प्रकाशयुक्त कोठरी भी काली।
यह जग है मेरा साम्राज्य,
हर छायाप्रति पर दिखे तुहीं आज ।
तुझे देख होती अति पीड़ा,
बना रहूँ कबतक मैं रणधीरा ।
मैं समर्थ, पंख लगा उड़ न पाऊँ।
बिन पंखों वाली, तुझे गगन में ही पाऊँ ।
झट तू बन जाए बच्चों का खिलौना,
मैं वयस्क क्या? रोऊँ घर कोना कोना ।
बिन मांगे तुझे मिले मोती अपार,
क्या पता? मागूँ न मिले भीख एकबार ।
तुझसे नहीं है मेरा निजी बैर,
करूं क्या? आता गुस्सा फिर भी खैर ।
तेरी बालस्नेह, देख घूट घूट रहता हूँ,
इसलिए तुझसे से नित चिढता हूँ ।
सच पूछो शांत करूं कैसे उर विलाप,
तभी तो गाऊँ एक ही राग अलाप ।
क्यों बन जाए तू झट-पट बच्चों की आली,
देख मेरी महंगी एल्बम भी खाली खाली ।
तुझे मिली – – – – –
-उमा झा