मानव का मिजाज़
चलते चलते एक दिन मैंने
पूछ ही लिया धूप से
क्यों इतना गर्माती है
क्यों मुसाफ़िर को झुलसाती है
अपनी गर्मी पर
क्यों इतना इतराती है
आग उगलते लू के बाण
कांटों की तरह चुभते हैं
त्याग कर चिलचिलाता रवैया
कभी पीपल छांव तले
आराम तनिक कर लिया कर
अपनी तन्हाईयों से गुफ़्तगू कर लिया कर
लम्बी गहरी मगर
आग उगलती सांस लेते हुए
शांत-चित्त मन से धूप बोली
गर्मी मेरा स्वभाव है
क्या तुझे नहीं मालूम शरद ऋतू में
मेरी गुनगुनी तपिश
दुनिया को शीत लहर से बचाती है
हे बटोही, पर तू बता
क्या तेरा स्वभाव भी गर्मी है
जो पल-पल हर मानव को तू
अपने क्रोध, हवस व् अहंकार की गर्मी से
झुलसाता है, जलाता है, तड़पाता है
अपनी कटु वाणी से
न जाने कितनों को घायल किया है
कभी-कभी तो क्रोधाग्नि के कुंड में
ख़ुद भी जलकर राख हो जाता है
है अस्तित्व ज़िन्दा मेरा
मेरे प्राकृतिक स्वभाव से
लेकिन तू क्यों इतना बदल गया है