मानव का धर्म
मानव का मानव से धर्म यह, निष्फल भाव तू कर्म कर।
न तनिक डर मृत्यु से तू , मानव का मानव से धर्म कर।।
तू धर्म कर,
जो कर्म कर,,
उस कर्म को सत्संग कर।
तू हो निर्भय,
तू बन अजय,,
अपने जीवन से जंग कर।।
जो आज वर्तमान है,
कल हो जाएगा बीता ‘कल’।
जो कर्म कर,
तो ऐसा कर,,
तेरा चित्त हो बिल्कुल निर्मल।।
जो लड़ते हैं,
वह लड़ेंगे ही,,
विघ्न-कर्ता विघ्न करेंगे ही।
जो आज हैं तेरे शत्रु ,
कल तो मित्र बनेंगे ही।।
परास्त कर तू शत्रु को,
अपनी वाणी के बाणों से।
यह देह है इक वस्त्र सम,
न प्रेम कर तू प्राणों से।।
संयम रख वाणी पर तू ,
दया रख प्राणी पर तू।
जिसने जन्म दिया तुझे,
गर्व कर उस क्षत्राणी पर तू।।
यही मानव का मानव से धर्म है,
निष्काम यही इक कर्म है।
यह सरल उपदेश का,,
इक संक्षिप्त-सा मर्म है।।
——————————भविष्य त्रिपाठी