मानवता
मानव , कहाँ छुपी है तेरी मानवता
शायद दब गई है मन के किसी कोने में
तेरी इच्छाओं ,महत्वाकांक्षा के बोझ तले
आगे निकलने की होड़ में
या फिर मुझे क्या ….. ,
जैसे जुमलों के बीच
कभी सड़क पर लहुलुहान पडे
किसी मानव को देखकर भी
नही पिघलती मानवता
कभी भूख से बिलखते
बेबस ,लाचारों को देख
नहीं पिघलती मानवता .
हाँ ,कभी-कभी टहलने
निकलते देखा है इसे
कभी बस में या रेल में
जब कोई किसी को
हाथ पकड बैठाता
अपनी सीट पर
कभी कोई बच्चा
असहाय वृद्ध को
पार कराता सड़क ….।
शुभा मेहता
17 january 2019