मानवता
झलक जा रहे
कहीं से रे।
कर्म की लेखा-जोखा में मानव तू गिरा रे,
मिलावटखोरों के रुधिर से ,वर्ग , विवाद।
युद्ध की भीषण आग में भी तो है रे।
संभल जा रहे।
अपने धरा को बचा ले रे।
झुलस रहा है पूरे जीवन।
भीषण द्वंद, युद्ध, आग हैं जीवन I
सम्हल जार ये।
तू मानव- मानवी
बीज,धरा कहां से लाओगे।
छोड़ो अपनी ही बात करो
बीज कहां बोएगा।
अपनी फसल कहां लहराएगा।
प्रेम ना उपजी खेत,
प्रेम ना उपजी हाट ( मार्केंट)
सद्गुरु कबीर का कहना मान रे।
मानवता का रोपण कर रे।
देश क्या पूरे विश्व तू पछताएगा,
अगर अपनी सही दिशा तै ना कर पाए।
झूठे मुल्ला, बड़े झूठेसाधुओं के फेर को त्याग कर ।
असली गुरू मानवता हैं।
यही विश्व को बचाएगा ,
धरती पर फिर तनावमुक्त जीवन लाएगा।
_ डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार, भागलपुर ,दिनांक-27-6-022की मौलिक एवं स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।