मानवता सिसक रही…
मानवता सिसक रही पर
धूर्तों की महफिल जारी
नैतिकता का गला घोंट दे
रहे तंत्र के सब व्यभिचारी
जनता फिर भी चहके इत
उत. जैसे मति गई हो मारी
मानवता सिसक…
लोकतंत्र में हर क्षण दिखे
तंत्र ही लोक पर भारी
जनसेवक भी भूल गए हैं
अपनी अपनी जिम्मेदारी
जनता के खाते में आती
बस उपेक्षा और लाचारी
मानवता सिसक….
कदम कदम पर जाल
बिछाए बैठे हैं शिकारी
फर्क नहीं उनकी सेहत
पर नर फंसे या कोई नारी
दूजों की बलि दे वो सब
करते जश्न की तैयारी
मानवता सिसक…