मातृशक्ति
एक नहीं अनंत भार, जीवन में लेकर चलती है।
दुःख सागर में होठों पर, ले मुस्कान मचलती है।।
वेद मंत्र सृजन का जो, जीवन को सिखलाती है।
संबंधों का सूत्रधार वह, मातृ शक्ति कहलाती है।।
बेटी होकर जग में मात पिता की आन है होती ।
खुशी बांटती रहती वह भाइयों की जान है होती ।।
मातपिता इच्छानुसार वह प्रथम त्याग कर देती है।
सृजन हेतु पीड़ा पीकर एक पुरुष को वर लेती है।।
नई जगह नई सोच, अनजानों को अपना लेती है।
अपने तो अपने रहते नव गृह भी को अपना लेती है।।
सृजन हेतु, पुनः स्वयं को पूर्ण समर्पित कर देती है।
पत्नी बन जाती है वह, पर नहीं भूलती की बेटी है।।
त्याग तपस्या की प्रतिमूर्ति सृजन हेतु तैयार है होती।
स्व शरीर को नीड़ बनाकर तब एक स्त्री मां है होती।।
रक्त स्वास सिंचित कर, नव जीवन निर्मित करती है।
मृत्यु से विजयी होकर ही एक औरत माता बनती है।।
लालन पालन पोषण कर, संस्कार दे बड़ा बनाती है।
कर सृजित सुगंधित पुष्प वह बगिया को महकाती है।।
शत शत नमन मातृ शक्ति जो जंगल को घर हैं बनाती।
“संजय” जो इन्हे कष्ट दे, उन घर बचता दिया न बाती।।
“सभी मातृशक्ति और उनके सुगंधित पुष्पों को समर्पित”