मातृभूमि
मातृभूमि
हरी भरी फुलवाड़ी वाली
फल फूलों की डाली वाली
मेरी मातृभूमि है मेरी जान
मेरी मातभूमि है सदा महान
मंडराते मेघों की होती गर्जन
शंख ध्वनि बन कर उदघोषण
मेघों की तुच्छ स्वाति आकर
भूधर को निर्मल निर्मित कर
करती है मातृ मधुर मगुणगाण
सावन की है घटा बहार आती
प्राकृत की है नव आभा बढाती
शीतल प्रचण्ड हवा का झौंका
पास गुजरता बढा धरा की शोभा
नव होता है मातृ आसीम प्रकाश
बसन्त रंगीला मनोरम हैं आता
पुष्पों की है बरसात बरसाता
फुलवाड़ी फल फूलों से भरता
तरुवरों को हैं तरो ताजा करता
गाती है कोयल फिर मीठी तान
सुखविंद्र सिंह मनसीरत