मातम-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत
मैं अपना शिकस्ता दिल लेके जब निकला उसके कूचे से
मुझको मेरी तन्हाई ने रो-रो के लगाया सीने से
अँधेरा जब छाने लगा नज़रों की हद कम होने लगी
साँसों की जो एक सरगम थी रफ़्ता-रफ़्ता वो खोने लगी
फिर भी तो मैं चलता रहा दरिया की तरह बढ़ता रहा
उसे याद नहीं करना फिर से मैं अपने दिल से कहता रहा
अब कोई फ़िक़्र- ए- फ़र्दा नहीं न कोई लुत्फ़- ए-आज रही
मैं उसके दिल का राजा नहीं वो मेरे सिर का ताज नहीं
अब मैं हूँ और तन्हाई है और माज़ी की परछाई है
अपना ग़म किसको पेश करूँ ये दुनिया ही तमाशाई है
मैं हाल-ए-रंज-ओ-नदामत में इलाज-ए-अज़िय्यत ढूँढता हूँ
जो एक सदी से नदारद है मैं उस किस्मत को ढूँढता हूँ
मैं मातम-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत में मेहमान-ए-ख़ुसूसी बनता हूँ
जो इश्क़ में हुएँ बुरीदा-सर दुआ उनके वास्ते करता हूँ
हर शाम को फिर मैं जाता हूँ जुगनुओं की क़ब्र पे रोते हुए
हर रात को फिर सो जाता हूँ ख़ुदकों ग़मों से भिगोते हुए
-Johnny Ahmed क़ैस