माटी
माटी
माटी तेरे
कितने रूप
कितने ही तेरे प्रतिरूप
अगणित गुणों को स्वयं समेटे
रंग तेरे काया अनुरूप
शून्य का पर्याय कभी तुम
जीव जगत का बनती आधार
तुमसे उपजे सकल जन जीवन
तुम में मिलकर होते इक रूप
तुम अंतिम सत्य
इस जीवन का
दंभी मानव मैं, मैं करता
जीवन यूं ही बीता सारा
मिलकर तुमसे
पुनः आकार
क्रोध दंभ से बीता जीवन
तुमसे मिल कर होता शीतल
धरातल पर फिर
रहना भी सीखा
उड़ देवों पर चढ़ना सीखा
तुम जैसे ‘ गर बन पाते
जीवन सार्थक
हम कर जाते
माटी तेरे गुणों को
‘ गर जीवन में अपना पाते
माटी होने से पहले हम
सच में जीवन जी पाते !!