माटी – गीत
कैसी मिट्टी से मुझको बनाया गया, गर मिले मुझसे भगवान पूछूंगी मैं।
मुझको लगता है मैं, रेत हूं हाथ में,
खुद ही खुद के नहीं अब ठहर पाऊंगी।
जल बिना जल के जो, हो गई ऊसरी,
ऐसी बंजर मृदा सी बिखर जाऊंगी।
जैसे ठहरे हुए आंसुओं को लिए,
दुःख समेटे हुए स्याह होता कोई,
मैं भी ऐसे किसी ताल की मृत्तिका,
खुद ही गहराइयों में उतर जाऊंगी।
कैसी तासीर का जल मिलाया गया , गर मिले मुझसे भगवान पूछूंगी मैं।
रक्त रंजित कुरुक्षेत्र की धूल से,
या तराइन की मिट्टी से मुझको रचा ?
या किसी शव के जलने से निकली हुई,
राख से था दिया तूने मुझको बना ?
या कि विरही कहीं कोई एकांत में,
अपने आंसू से धोकर गया था ज़मीं,
और तूने उसी नम हुई खाक से,
मेरे तन को हृदय से दिया था सजा?
किस महीने का सूरज दिखाया गया, गर मिले मुझसे भगवान पूछूंगी मैं।
ये सवालात यूं ही नहीं है उठे,
इनके पीछे सबब भी मिलेगा छुपा
खुद को नीरस लगी मैं कभी रेत सी,
मुझको जीवन कभी बंजरों सा लगा।
एक विद्रोह मन में रहा और मन,
रह गया एक संघर्ष के व्यूह में !
रात बीते हृदय को खंगाला अगर,
उंगलियों का कोई पोर गीला मिला।
किस लिए मुझको आखिर रचाया गया, गर मिले मुझसे भगवान पूछूंगी मैं।
शिवा अवस्थी