माटी के दीपक की मन की व्यथा –आर के रस्तोगी
मैं माटी का छोटा सा दीपक हूँ,सबको देता हूँ प्रकाश
अन्धकार को दूर भगाता हूँ,ये मेरा है पक्का विश्वास
तेल बाति मेरे परम मित्र है,ये देते है मेरा सैदव साथ
इन के बिन किसी को न दे पाता हूँ,मैं अपना प्रकाश
दिवाली त्यौहार की रौनक हूँ मै, कुम्हार मुझे बनाते है
गरीब मजदूर मुझे ही बेचकर,दिवाली अपनी मनाते है
प्रभु को खुश करने के लिये,भक्त मुझे जलाते है
मुझे दिखा कर प्रभु को, उनसे वरदान वे पाते है
नामकरण जब होता है,मेरा ही सहारा लिया जाता है
ज्योति,पूजा, दीप्ती,दीपिका का नाम धरा जाता है
शुभ कार्य जब प्रारम्भ होता,मुझे ही जलाया जाता है
माँ सरस्वती को मेरे माध्यम द्वारा याद किया जाता है
मेरे बिन आरती नहीं होती,मंदिर भी सूने रहते है
मै उनके हाथ में न हूँ तो पुजारी भी अधूरे रहते है
मै कुल का दीपक हूँ,मेरे बिन परिवार अधुरा है
मेरे बिन कुल और मात-पिता का श्राद्ध अधूरा है
दोषी भी मैं माना जाता,लिखा है किसी किताब में
कहा जाता है,घर को जला दिया घर के चिराग ने
आर के रस्तोगी