माटी का पुतला
अरे मानव ! मत कर अभिमान तन का ,
तू कुछ भी नहीं एक माटी का पुतला है।
यह तेरा तन जिस पर तुझे अभिमान है ,
धोखा है ! परंतु तू समझे तू रूपवान है!
अंदर भरा है खून,मवाद,मल मूत्र आदि ,
बस हाड़ मांस ने उस पर परत चढ़ादी।
तू रेशमी वस्त्र पहनकर दिखे मोहक,
मगर तेरा कंकाल दिखे बड़ा भयानक ।
यह तेरा मन तेरे ही वश में नहीं रहता ,
महत्वाकांक्षाओं से तुझे नाच नचाता।
यही मन तुझसे क्या कुछ न करवाए ,
तुझसे बड़े जघन्य अपराध करवाए ।
जब तू करे कुकर्म बड़ा भयानक दिखे,
तू अपराध में लिप्त कोई चांडाल दिखे ।
भगवान ने तुझको दी थी पवित्र आत्मा,
जिसे जमीर कहते है ये वही अंतरात्मा।
मगर उस जमीर की सुने कभी सुनी नही ,
तू मस्ती में रहा मौत की आहट सुनी नही ।
तू भूल गया तू तो माटी का पुतला ही था ,
जिसे आत्मा ने अबतक जीवित रखा था ।
आत्मा देह छोड़ गई,काहे की रूप सज्जा ,
धरा रह गया अभिमान और महत्वाकांक्षा।
तुझमें कोई खूबी नहीं,फिर भी अकड़ता है,
खोखला सा अस्तित्व है फिर भी इतराता है।