“मां बनी मम्मी”
“मां बनी मम्मी”
‘मां’ बन गई है , जबसे मम्मी;
बाबूजी भी, बन गए हैं पापा;
सनातन में,ये शब्द परिवर्तन;
किसने किया है, हे! विधाता।
मम्मी में, मां सी वो त्याग कहां;
रात लोरी में,अब वो राग कहां;
माता पिता जैसा, समर्पण का;
मम्मी डैडी में,वो अंदाज कहां।
मम्मी तो अब, अपने मतंग रहती;
अपने जीवन से ही, वो तंग रहती;
‘मां’ वाली त्याग अब , दिखे कहां;
रिश्तों से बड़ा,पैसों के संग रहती।
बेटी में,मां की बात दिखती कहां;
मम्मी से,बेटी कुछ सीखती कहां;
बेटा भी जो थे , पिता संग घूमते;
अब पापा से दूर, घूमे जहां तहां।
मां सा सादगी , दिखती कहां संसार में;
मम्मी को दिखावा चाहिए , हर हाल में;
बाबूजी भी गए फस, मम्मी के जाल में;
बने वे जबरन,डैड व पापा इस काल में।
उसे; हम दो हमारे दो का , संस्कार है;
कम ही मम्मी के पास,बड़ा परिवार है;
निज माता पिता को भी,सब भूल गए;
क्या करे, डैडी या पापा भी लाचार है।
लगता अब नाम का भी,पूरा प्रभाव है;
नाम से ही , कई संस्कार का जुड़ाव है;
पहले मां थी;कौशल्या,राधा व सुमित्रा;
अब मम्मी बनी;पम्मी,जूली व विचित्रा।
मम्मी डैडी से बच्चों की , बढ़े दूरी यहां;
हे भारत की मम्मी , फिर से बनो तू मां;
आधुनिकता में, न डूबो हे अभिभावक;
संस्कार छोड़ सब,अब जा रहे हो कहां।
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स्वरचित सह मौलिक;
✍️पंकज कर्ण
…….कटिहार।