मां तो बस मां ही होती है ..
माँ तो बस माँ ही होती है ,
क्या सगी क्या सौतेली ।
मगर यह समझता है कौन ,
वोह है एक अनबुझ पहेली ।
कैसा है यह आधुनिक समाज ,
बदला है बेशक रहने का सलीका ।
मगर विचारों से ना बदला समाज,
है वही संकुचित सोच ,वही तरिका ।
माँ ही तो होती है वोह भी ,
जो प्रतिपल संतान की फ़िक्र करती है,
त्याग ,तपस्या की मूर्ति बन ,
जो बस संतान के लिए जीती है।
लेकिन उसके प्रेम और बलिदान
को जग में समझता है कौन ?
काँटों का ताज पहनकर सर पर ,
अंगारों पर चलती है रहकर ,मौन ।
वोह पुरे करती है अपने सारे फ़र्ज़ ,
और उठाती है ज़िम्मेवारियों का बोझ ।
मगर इसके बदले पाती है उपेक्षा ,अपमान ,
और समझी जाती है स्वजनों पर बोझ ।
क्रोध और नाराज़गी को बयान करे कैसे ,
यदि करे तो बदनाम हो जाये ।
“ऐसी होती है सौतेली माँ ” ताना वोह सुने ,
उसे ज़माने भर के कटाक्ष सुनाये जाए ।
उसकी डांट -फटकार ,नाराज़गी के परोक्ष में ,
छुपी होती है सगी माँ सी ही संतान के लिए भलाई ।
जन्म नहीं दिया अपने गर्भ से तो क्या ,
संतान के दिल से तार से तार तो है उसने मिलायी ।
उसके अरमानो और सपनो का,
केंद्र -बिंदु होती है उसकी संतान ।
हर माँ की तरह अपनी ख़ुशी ,और प्यार ,
उनपर लुटाना चाहती है यह माँ ।
सौतेली माँ जितनी भी हो सुशील ,
संस्कारी ,सुशिक्षित और गुणवान ।
मगर है तो वोह कोल्हू बैल , निर्गुणी ,
और सबके लिए प्राणी एक अनजान ।
हां प्रभु ! हां प्रभु ! कैसा लिखा तूने/भाग्य ,
सौतेली माँ का तमगा पहनाया नहीं दिया सौभाग्य ।
कान्हा जैसी सन्तान देकर इसको भी ,
प्रदान करते माता यशोदा जैसा सौभाग्य ।