मां का दर्द
मेरा नजराना था एक दिन वो अब नजरें चुराता है ।
जिसे समझाई दुनिया वो अब दुनिया सिखाता है ।
कभी जो दे चुकी उसको अभी हूं पा रही उससे ;
घुमाया हर गली जिसको वो अब गलियां दिखाता है ।
कभी मगरूर भूखी थी अभी मजबूर भूखी हूं ;
खिलाया “पेट का” जिसको वो अब भूखी सुलाता है ।
चिपकता था जो सीने से भरी रहती मेरी आँखें ;
भरी अब भी ये रहती हैं वो जब आँखें दिखाता है ।
खङी होकर मैं जो दर पे जो सोचूं क्यूं नहीं आया ;
करूं मैं क्यूं फिकर उसकी मुझे पागल बताता है ।
चलूं वृद्धा अगर गिरकर कोई भी चीज टूटे तो ;
नजरंदाज मेरी चोटें मुझे कीमत गिनाता है ।
तू गर्वित हो भले पाकर सब आराम दुनिया के ;
जो समझा पीर ना मां की फकत आँसू बहाता है ।
-आर डी जाँगङा “गर्वित