मांँ की छांँव में बचपन
वो यादें आज भी लुभाती ,
मेरा बचपन मचलता यौवन,
बगिया के लाल नीले सुनहरे पुष्प,
मुस्कुराते हुए मन मचल उठता,
बस किसी तरह पा लूँ,
छू लूँ , फिर से लौट जाऊंँ,
उन्ही आंँचल के तले,
जहांँ धूप में छांँव नजर आए,
मांँ की ममता की प्यास,
बस दौड़ते हुए कोई पास आता,
कहीं तनिक भी पादुकाऐं न पड़े जमीन पर,
हवाओं में उछाल देती,
सारा जहांँ सिमट जाता ,
चेहरे की हंँसी देखकर,
होंठ गीत गाने को तन्मत होते,
प्रयासवत् बस एक शब्द उठता ,
‘मांँ’ कहां हो तुम ,
तन में आग लगी ,
उदर में हलचल प्रतीत होता ,
हाथों से सहलाते हुए ,
लोरिया सुनाती सोने को ,
मीठी-मीठी कोयल सी बोली ,
पवन धार चीरते हुए कानों में पड़ती ,
अति सुंदर और मोहित करता ,
कौन जानता यह बालहट ,
आंखों से आंसू की एक बूंद भी न झलकने देती,
कितनी व्याकुल हो उठती मांँ,
रोने की कर्कश ध्वनि,
सुरीली बंसी सी सुनती,
हृदय में दुख सह न सकती,
मनाने को हर सम्भव प्रयास करती,
ले लो मेरा यौवन,
लौटा दो मेरा बचपन,
उन्हीं आंँचल के तले,
जहांँ मुस्कुराता रहूंँ,
धूप में भी छाँव ढ़लें ,
कभी न ढ़लें वह दिन ,
फिर शुरू करुँ हठ लिए हुए ,
बचपन मांँ की छांव में ।
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✍? बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर ।