माँ
गिरते ही धरा पर, झट उठाती है माँ
छिपा आँचल में सीने से लगाती है माँ
बाहों के झूले में झुलाती है माँ
थाम उंगली पग-पग चलाती है माँ
गिरकर फिर सम्भलना सिखाती है माँ
अच्छा क्या, बुरा क्या है ये बताती है माँ
गा गाकर तुझे लोरियां, सुलाती है माँ
पल पल ममता का सागर लुटाती है माँ
देख मुस्कुराते तुझको, मुसकाती है माँ
तेरे दर्द पे आंसू बहाती है माँ
शैतानियों में तेरी डांट लगाती है माँ
फिर से प्यार से बालों को सहलाती है माँ
अपने हिस्से की रोटी तुझे खिलाती है माँ
खुद पानी पीकर ही सो जाती है माँ
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ज्ञान-ध्यान, हवन-पूजन नित नए सृजन कराती माँ
आंच न तुझको आने पाए निज तन को झुलसाती माँ
स्वार्थपरक इस कलिकाल में, सर्वस्व समर्पण भाव लिये
शक्तिपुंज , ममता की मूरत , यूँ ही नहीं कहाती माँ
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. – “हरवंश श्रीवास्तव”