माँ
माँ, पृथ्वी होती है
सुबह से शाम तक
परिवार को बाॅंधे
धुरी पर घूमती है।
प्यार से भोजन बना
स्नेह ममता उडेल
सभी सदस्यों को
खाना परोसती है।
माँ! कपड़ों का ही नहीं
अपने अनुभव से
मन का कलुष भी
स्वत: ही धोती है।
घर का ऑंगन और
सिर्फ घर ही नहीं
संतान का व्यक्तित्व भी
झाड़ती-पौंछती है।
प्रतिफल में पाकर
पति की डॉंट
पुत्रों की झल्लाहट
अन्तर में ही रोती है।
फिर भी सहजता से
उनकी उन्नति के लिए
सब कुछ सहकर
एक ही माला में पिरोती है।
जैसे पृथ्वी
सब कुछ सहकर भी
सभी जीवों का
पालन-पोषण करती है।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)