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15 May 2023 · 1 min read

माँ

“माँ”
——
नादानी में मैंने माँ को,
कितना नाच नचाया था।
माँ ने मुझको गोदी लेकर,
ढेरों लाड़ लड़ाया था।
बारिश की बूँदों में माँ तू,
छतरी लेकर आती थी।
कागज़ की फिर नाव बनाकर,
चुंबन देकर जाती थी।
आँसू पा मेरे नयनों में,
छिप-छिपकर तू रोई थी।
अंक सुलाकर मुझको अपनी,
तू ने निद्रा खोई थी।
देख अकेला रोता मुझको,
गोदी ले दुलराती थी।
सात खिलौने देकर मुझको ,
लट्टू से फुसलाती थी।
गुरु साहिब की तू है वाणी,
तू तुलसी की चौपाई।
सूरपदों की मातृ यशोदा,
फूलों जैसी मुस्काई।
याद करूँ जब बचपन अपना,
मैं सपनों में खो जाती।
तेरी ममता साथ लिए मैं,
परियों के घर हो आती।
आज कहे ‘रजनी’ माँ तू ने,
हर सुख को ठुकराया था।
आँचल में दुबका कर तू ने,
अपना चैन गँवाया था।
स्वरचित/मौलिक
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)

मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि” माँ” कविता मेरा स्वरचित मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।

Language: Hindi
241 Views
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