माँ
बहुत दिनों के बाद
आज माँ को गौर से देखा
देखा, उसके चेहरे पर
असमय उग आईं झुर्रियों को
काँपते हाथों को
और
सोचता रहा पुरानी बातों को
क्या यही वह माँ है
जो चाँदनी रातों में बनाती थी कौर
चन्दा मामा का, बूढ़ी दादी का
अपना, बाबूजी का
भैया का, दीदी का
और, न जाने किसका-किसका
खिलाती थी प्यार से
बड़े ही मनुहार से
सुनाती थी कहानियाँ
परियों की, राजा-रानी की
कौवा और गौरैया की
बन्दर और चिड़िया की
तभी आता कहीं से एक हवाई जहाज
भयानक आवाज करता
डर जाते थे हम
छुपा लेती थी माँ अपने आँचल में
सहलाती बड़े प्यार से माथे को
सुनाती लोरियाँ
लगाती थपकियाँ
खो जाते थे हम मीठे सपनों में
माँ जागती रहती भूखे पेट
आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने लिए
नहीं भारी पड़ने देती अपनी भूख को अपनी ममता पर
आज फिर माँ लायी है खाना
काँपते हाथों से, गीली आँखें लिए
रुलाता है उसे
बेटी का ससुराल से लौटकर फिर कभी न आना
बेटों का एक दूसरे से अलग हो जाना
कोई नौकरी तो कोई दुकान पर
माँ अकेली रह गई है पुराने मकान पर
टूटती रही प्रतिक्षण
देखता रहा कण-कण
आज ही लौटा हूँ शहर से
देखता हूँ
माँ के मुखड़े पर छाई खुशी
और दूसरे ही क्षण
उभर आने वाली उदासी को
सोचता हूँ
क्या किया है मैंने माँ की खुशी के लिए
सिवा इसके
कि लिखता हूँ चन्द पंक्तियाँ माँ पर
सुनाता हूँ महफिलों में
और पाता हूँ वाहवाही
कि ‘बच्चे की पुकार पर वह गाय बन जाती है
मातृभूमि पर संकट आए तो पन्ना धाय बन जाती है
माँ की ममता जन्म-जन्मान्तर से नहीं मिट सकती
माँ की महिमा स्वयं माँ सरस्वती भी नहीं लिख सकतीं’
फिर सोचता हूँ
माँ के आँचल से लिपटकर
फूट-फूट कर रोऊँ और कहूँ
कि क्षमा कर दे अपने इस नालायक बेटे को
लेकिन नहीं कर पाता ऐसा
उठाता हूँ ब्रीफकेस
करता हूँ प्रणाम माँ को
और
चल देता हूँ फिर शहर को
देखती रह जाती है माँ चौखट पर खड़ी
भीगी पलकें और होंठो पर ‘असीम’ दुआएँ लिए।
✍🏻 शैलेन्द्र ‘असीम’