“माँ”
“माँ” एक ऐसी शख्सियत जिसके लिए कुछ भी लिखना कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है,माँ के जैसी पैनी नज़र शायद किसी की नहीं होती जिसे सबका दुख दिखता है सबका दर्द महसूस होता है लेकिन खुद की तकलीफ न जाने किस तिजोरी में छिपा कर रखती है,अपने सपने,अपनी सेहत,अपना स्वाद और न जाने क्या क्या सब एक ताक में जाकर रख देती है अपने बच्चों के लिए,हमेशा उलझी रहती है रिश्तों की छोटी बड़ी गांठ सुलझाने में,एक पल नहीं लगाती हमें हुमारी गलतियों के लिए माफ करने में,मगर कभी गलती से भी उससे कोई चूक हो जाये तो हम एक पल नहीं लगाते उसे दोष देने में, माँ के इसी दुःख को बताती एक कविता….
चक्की के दो पाट से रिश्ते
धान सी पिसती बीच में “माँ”
रिश्तों के बीच-बचाव में आ कर
चप्पल जैसी घिसती “माँ” ☹️
रिश्ते नाते घर परिवार
अच्छा बुरा सब स्वीकार
दर्द को खुद की दवा बना के
घाव के जैसे रिसती “माँ” ☹️
तुम माँ हो फिर भी समझाया नहीं
सब कुछ जानो पर सिखाया नहीं
इस सीख सबक के छोर से बंध कर
रबर जैसे खिंचती माँ 😥
तुझे वो प्यारा बस मैं नहीं
हूँ मैं गलत, सिर्फ वो सही
“तेरा-मेरा” कर सब हाथ छटक दें
फिर मुठ्ठी जैसे भिंचती माँ ☹️
“इंदु रिंकी वर्मा”©