माँ…
‘मुन्ने’
तुमको चोट लगी है
बोलो तुम थे कहां गिरे
राह में कहीं गढ्ढे थे या
थे तुम गढ्ढे में खेल रहे…?
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माँ…
मैं तो जा रहा था अपने रस्ते
थोड़ा गाते थोड़ा सा हंसते
राह में गढ्ढा खुद आया था
मुझको कहां दिख पाया था
कितने गढ्ढे तो मैं लाँघ गया
हसंते हंसते फलांग गया
एक न जाने कैसे मुझ से चूका
मेरे पैर का अंगूठा जिससे टूटा
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रहा में तेरे जितने गढ्ढे आएंगे
सब गढ्ढों को मैं खुद से पाटूंगी
कंकड़ पाथर चुभे जो तुझको
मुन्ने उसको भी मैं तो डाटूंगी
जब तक रहूंगी मैं इस दुनियां में
तेरी सारी दुखों को मैं तो बाटूंगी…
…सिद्धार्थ