माँ
कहाँ से पाती हो माँ
ये अपराजीत स्वभाव
यह तुल्यानुराग भाव
ये अविचल जीवन-दृष्टि
यह प्रश़्न स्वंय से दोहराती हूँ
माँ बन अब माँ समझ में आती है।।
तुम्हारा वात्सल्य महोदधि सा विशाल
हम सब कुसुम स्तबक समान
तुम्हारी छाया में कर वास
तुम्हारे सूत्र में बँधे प्राण
यह दुनिया दलित द्राक्षा सी
तुम्हें ढूँढते है कस्तूरी मृग सामान
माँ बन अब खुद में माँ को पाती हूँ।।
सिसकियों बीच पनीली आँखे
गालों पर लुढ़कते आँसूओ को
तुम्हीं से छुपाना सिखा है
मेरे नन्हें पंखों को ऊँची उड़ान
भरना भी तुम्हीं ने सिखाया है
खुद में तुम्हारा ही अस्तित्व पाती हूँ
माँ बन अब माँ समझ में आती हैं।।
माँ तुम हो अंतहीन आसमान
हर व़क्त बरसता है हमपर
तुम्हारा प्रेम,मीठा आशीर्वाद
तुमने हीं सिखलाया है माँ
ढलते शाम का रहस्य
औ उगते सूरज का महत्व
अब तक समझ ना आया
तुम अपने लिये कब जीती हो
माँ तुम हो कितनी महान
माँ बन अब माँ समझ में आती हैं।
– रंजना वर्मा