माँ
न सुर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था,
फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था,
मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी,
सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी,
मेरा आँखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी,
मेरी खामोशी को अपने मन से तुम सुुन लेती थी,
प्यार में डूबा कौरा मेरे मुंह तक जब तुम लाती थी,
स्वाद तेरी ममता का चख कर भूख मेरी मिट जाती थी,
मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी,
तब जाने कैसी हिम्मत इन क़दमों को मिल जाती थी,
चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी,
मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी,
तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है,
माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है,
चन्द्र शेखर वर्मा
लखनऊ