माँ
मेरे छोटे से घर से मेरी,,,
दुनियां अयाँ होती हैं !
मैं इक कमरे में होता हूँ,
और पूरे घर में माँ होती हैं !!
मेरी दुश्वारियां भी उसकी
दुआओं से डरती हैं !
मेरा हर दर्द सो जाता हैं,
तब जा के माँ सोती हैं !!
सुबह उठते ही, सूरज
टांक देती हैं छत भर तक!
धुधलका हो नहीं पाता,
की तारे से पिरोती हैं !!
मुझे बच्चों सा नहलाती हैं
अब भी, धूप में अक्सर !
वो संचित पुन्य से घिस कर,
मेरे पापों को धोती हैं !!
ग़मों से टूट कर रोते हुए
तो देखा हैं लोगो को !
वो खुश हो तब भी रोती हैं
ओ गुस्से में भी रोती हैं !!
वो उसको याद हैं अब भी,
प्रसव की वेदना शायद !
वो घर के सामने क्यारी में,,
कुछ सपने से बोती हैं !!
माँ तो बस माँ होती हैं
हरीश भट्ट
हरिद्वार