माँ
न केवल जगत् का आधार है
अपितु आकार भी है तू
निराकार को साकार कर
जगत् है दिखलाती तू
निस्सन्देह निष्कपट प्रेम है जतलाती तू
अनवरत व्रत वत्स की उन्नति का
साकार करने के लिये
तन मन धन सब है लगाती तू ।।
सन्तति के साथ तो अद्वैतिन् बन जाती है तू
उसी के पालन के खातिर सांसारिक बन्धन में बन्ध जाती है तू
कहते हैं ये ममता है प्रेम है या है कोई बन्धन
मुझे तो लगता है कि ये है अद्भुत अद्वैत का संगम ।।
रंग मंच पर नटी है यथा स्व अन्तर्दशा नहीं दिखलाती
तद्वत् वत्स के साथ एक हो कर माँ सब रस है दिखलाती
हास्य विस्मय को बुनती हुई माँ
वत्स के ठहाकों को है उभारती
ये सब तो करती हुई वो
जुगुप्सा से भी नहीं हारती
इस तरह करती हुई माँ
सब रसों को है साकारती ।।
– रोहित