माँ
भोलेपन की सूरत,पर माँ पिघल जाती है।
श्रृंगार स्वरूप सब भूल कर,लोरी में घुल जाती है।।
कोई बता दे उसकी ममता,की कैसी ये चादर ।
उठ-उठ कर आती माँ मेरी,ऐसा ममता का आँचल ।।
भीगे तन में बैठी,माँ ऐसी तेरी पूजा ।
उठ ना जाये निंदिया,तुझसा ना कोई दूजा ।।
कितना पराया तुमको कर दें,या हो हम दुःख में शामिल ।
उठ-उठ कर आती माँ मेरी, ऐसा ममता का आँचल ।।
बान्धी हें प्रेम की डोरी,अँगना में जो मेरी।
सरल हो रहा जीवन,जब से सुन ली लोरी।।
जब-जब बिगड़े शब्द मेरे,या हो गया मैं विरहन।
उठ-उठ कर आती माँ मेरी ऐसा ममता का आँचल।।
लेखक प्रकाश चंद्र जुयाल
गैरसैण चमोली (उत्तराखंड)